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Is it really fair to give Bharat Ratna to Swatantravir Savarkar?

क्या स्वातंत्र्यवीर सावरकर को वाकई में भारतरत्न देना उचित हैं?


कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी की ओर से महाराष्ट्र राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अपना घोषणापत्र जारी कर दिया. वैसे तो राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्र को ज्यादा सीरियसली लेने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि इनमें दिए गए ज्यादातर वादे ढकोसले साबित होते है. लेकिन फिर भी भाजपा के इस घोषणापत्र की चर्चा करना जरुरी बन जाती है.

इस घोषणा पत्र में भाजपा ने महाराष्ट्र पहली बार लड़कियों के लिए स्कूल चलाने वाली महान समाजसेविका सावित्रीबाई फुले तथा हिंदू महासभा के संस्थापक तथा स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर को भारतरत्न देने के लिए केंद्र सराकर को सिफारीश किए जाने का वचन दिया गया है.

ज्ञात हों कि, पिछले पांच-साढेपांच वर्षों से केंद्र में भाजपा की सरकार है तथा राज्य में भी भाजपा सरकार ने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया है. अगर दोनों ही जगह पर भाजपा की सरकार है तो फिर अब चुनाव के लिए जारी घोषणापत्र में इसकी घोषणा क्यों की गई है.

जाहीर है कि, राजनीतिक पार्टियां चुनावी मुद्दों को भुनाने में काफी माहीर होती. लेकिन यह लोग देश के लिए महान कार्य करने वालों के त्याग और बलिदान को भी भुनाते है, यह और एक बार रेखांकित हो गया है. घोषणा पत्र में की गई इस मांग से इस घोषणा पत्र से स्वार्थ टपक रहा है, यह तो सौ फीसदी सच साबित हो रहा है.

भाजपा द्वारा इस संदर्भ में घोषणा करने के बाद पूरे देश में एक बहस छीड़ गई है कि, क्या वाकई में स्वातंत्र्यवीर सावरकर को भारतरत्न देना चाहिए. हमेशा तड़का खबरों की ताक में रहने वाले तथा देश के लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटकाने की ताक में रहने वाले मीडिया को यह अच्छा मौका मिल गया.

इस मुद्दे पर मीडिया में काफी चर्चाएं हो रही है. गरमागरम बहसें भी जारी है. प्राइम टाइम की टीआरपी आसमान छू रही है. समर्थन करने वाले चिल्ला रहे है. विरोध करने वाले उससे भी ज्यादा जोर से चिल्ला रहे है. इस शोरगुल में जनता के असली मुद्दे पूरी तरह से हवा हो गए है.

इन सभी चर्चाओं में पूरी तरह अभ्यस्त होकर कोई भी सावरकर के संदर्भ में जानकारी नहीं दे रहा है. अगर सावरकर के संदर्भ में जानना है, तो उनके कार्यों को पूरी तरह से समझना काफी जरुरी है. सावरकर के व्यक्तित्मव में विभिन्न तरह के पहलू है. हमें इन सभी पहलूओं को अलग-अलग कर सोचना होगा, तभी जाकर सावरकर के जीवनकार्य की जानकारी हम प्राप्त कर सकते है.

समर्थन करने वाले स्वातंत्र्यवीर सावरकर को 100 फीसद स्वीकारते है, जबकि विरोध करने वाले 100 प्रतिशत उनके कार्य को नकारते है. लेकिन उनके कार्य को सम्यकतापूर्ण नजरिये से हमें देखना होगा. उनके कार्यों की तटस्थता से समीक्षा करनी होगी. चूंकि, सावरकर कोई भगवान या अवतार पुरुष तो थे नहीं, इसलिए उनके किसी कार्य की प्रशंसा तथा आलोचना होना लाजमी है.


जिस तरह से महात्मा गांधी के कार्यों की प्रशंसा और आलोचना हो सकती है, उसी तरह सावरकर के कार्य की भी आलोचना और समर्थन हो सकता है. इस इतना ज्यादा हो हल्ला करने की कोई जरुरत नहीं.

विनायक दामोदर सावरकर जब बड़े हो रहे थे, तब देश पूरी तरह से ब्रिटिश राज तले रौंदा जा रहा था. ब्रिटिश सरकार की ओर से देश का बड़े पैमाने पर शोषण, दमन किया जा रहा था. ऐसी स्थिति में देश के किसी भी सच्चे नागरिक का खून खौलना स्वाभाविक है.

इसे देखते हुए सावरकर ने भी अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई छेड़ दी थी. उन्होंने पहले भारत में रहते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया था. 1904 में उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई करते समय ही अभिनव भारत संस्था की स्थापना की. यह संस्था ब्रिटिशों के जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने लगी

1905 में पुणे में सावरकर ने विदेशी कपड़ों की होली भी जलाई. बाद में 1906 में महान क्रांतिकारी बाल गंगाधर तिलक की सिफारीश पर श्यामजी कृष्ण वर्मा की ओर से उन्हें छात्रवृत्ति मिली और वे उच्च शिक्षा की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए. वहां भी उन्होंने ब्रिटिश सरकार के जुल्मों के खिलाफ आवाज बुलंद की. इस बीच उन्होंने भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम यानी 1857 के विद्रोह पर किताब भी लिखी. यहां उन्होंने फ्री इंडिया सोसाइटी की स्थापना भी की, जोकि एक सशस्त्र विद्रोह में विश्वास रखती थी और उस दिशा में काम भी कर रही थी.

इस सोसाइटी की गतिविधियों पर ब्रिटिश सरकार की भंवे तन गई थी और उन्होंने सावरकर के क्रांतिकारी कार्य पर पैनी नजर रखनी सुरू कर दी. महान स्वतंत्रता सेनानी मदनलाल ढिंगरा द्वारा कर्जन वाइली की हत्या के बाद लिखे लेख के चलते सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया.

बाद में उन्हें भारत लाकर मुकद्दमा चलाया गया, जिसमें न्यायालय ने उन्हें दो बार उम्रकैद की सजा सुनाई और उन्हें काले पानी की सजा भुगतने के लिए अंदमान के सेल्युलर जेल भेजा गया. सावरकर के जीवन का विवाद यहीं से शुरू होता है. जेल में पहुंचने के मात्र ढाई महिने के बाद सावरकर ने पहली दया याचिका अंग्रेज सरकार को भेजी. इसके बाद उन्होंने और पांच दया याचिकाएं सरकार के समक्ष रखीं.

यह सभी दया याचिकाएं सावरकर के हस्तलिखितों में आज भी उपलब्ध है. इन दया याचिकाओं में कुछ भी लिखा है, उसे पढ़कर कई बार हम भी अचम्भित हो उठ सकते है. उन्होंने इन दया याचिकाओं में ब्रिटिश सरकार को दयालू, कृपालू करार दिया है. साथ ही अगर सरकार उन्हें छोड़ देती है, तो वे ब्रिटिश सरकार के प्रति पूरी वफादारी और इमानदारी बरतने का आश्वासन देते है.

सबसे ज्यादा आपत्तिजनक अगर इन दया याचिकाओं में कुछ है, तो यह कि उन्होंने इसमें सरकार उनकी गलतियों को माफ करने की बात कहते है. अपने स्वतंत्रता आंदोलन को ‘गलती’ सावरकर आखिर कैसे कह सकते है. ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना ‘शौर्य’ है, वह ‘गलती’ कैसे हो सकती है.

हालांकि, सावरकर जब इंग्रेजी हुकुमत को दया याचिकाएं भेज रहे थे, उसी समय सेल्युलर जेल में बड़ी संख्या में कैदी मौजूद थे. वहां सुबोध राय, गणेश घोष जैसे साम्यवादी विचारधारा वाले और ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवाद के विरोध में लड़ने वाली भी सजा भुगत रहे थे. वहीं वहां पर दूसरी विचारधाराओं वाले भी क्रांतिकारी धे. लेकिन किसी ने भी दया याचिका ब्रिटिश सरकार को देने का कोई रिकॉर्ड आज तक सामने नहीं आया है.

सावरकर के समर्थक यह भी कहते है कि, सावरकर की दया याचिकाएं यह एक स्ट्रैटेजिक मामला है. अगर ऐसा है तो जेल से छूटने के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तरह सावरकर भी विदेश भागकर सशस्त्र आंदोलन कर सकते थे, ऐसा आरोप उनके विरोधी लगाते है. लेकिन इसके बाद सक्रिय रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहने का सावरकर इतिहास दिखाई नहीं देता.

जेल से छूटने के बाद उन्होंने सामाजिक आंदोलनों में खुद को झोंक दिया. हिंदू धर्म में फैले छुआछुत के खिलाफ उन्होंने आंदोलन चलाए. मुंबई में उन्होंने पहला पतितपावन मंदिर स्थापित किया, जो सभी जातियों के लिए खुला था. उन्होंने सभी जातियों के लोगों को लेकर सहभोजन का उपक्रम चलाया.

द्वितीय विश्व युद्ध का बिगुल बजने के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार को असहकार कर उन्हें परेशान करने की बजाय ब्रिटेन की फौज में ज्यादा से ज्यादा भारतीय शामिल हों, ऐसा आवाहन किया. साथ ही कुछ जगहों पर उन्होंने सैनिक भर्ती कैम्प भी चलाए. इस स्थिति में सुभाषचंद्र बोस अपनी फौज बनाकर ब्रिटेन के खिलाफ जंग छेड़ने का प्रयास कर रहे थे. यह इतिहास पूरी तरह से जिवंत है. इसके सभी तथ्य और साक्ष्य आज भी मौजूद है.

इस बीच देश के बटवारे की हवाएं चल रही थी. मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग देश को धर्म के आधार पर विभाजित करने का प्रयास कर रही थी. बटवारे के आंदोलन के चलते ज्यादातर मुस्लिम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई से दूर होते चले गए. यह बात अंग्रेजों के लिए काफी लुभावनी लगी.

वहीं दूसरी ओर देश के हिंदू और मुस्लिम यह दोनों ही अलग-अलग राष्ट्र है. इसलिए ये कभी भी एकसाथ नहीं रह सकते, ऐसा आवाहन सावरकर की ओर से किया गया. यह एक तरह से द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मानने जैसी बात है. उनकी इस भूमिका को लेकर भी काफी विवाद है. उनकी यही भूमिका के भारत के बटवारे की मांग को और पुख्ता कर गई. साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीयों का आंदोलन और भी कमजोर पड़ गया था.



यही पर उन पर आरोप लगता है कि, ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करने का काम मुस्लिमों की तरफ से जिन्ना ने किया, वही काम हिंदूओं की तरफ से सावरकर ने किया. यह भूमिका उनके ब्रिटिश सरकार को लिखी गई दया याचिकाओं किए गए वादों को उजागर करती है. इसलिए उपर ब्रिटिश सरकार को हर संभव मदद करने का आरोप लगता है, जोकि उनके भारतरत्न पुरस्कार के मार्ग में बाधा बनती है.

30 जनवरी 1948 में जब नथुराम गोड़से ने महात्मा गांधी की हत्या की, तब उस मामले में सावरकर को भी दोषी मानकर गिरफ्तार कर लिया गया था. गांधीहत्या की जांच के लिए गठित कपूर कमिशन की रिपोर्ट में भी सावरकर को कोर्ट ने केवल एक तकनीकी मुद्दे के कारण बरी कर दिया, ऐसा लिखा गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने जो भी वातावरण उस समय देश में निर्माण किया, उसी के चलते महात्मा गांधी की हत्या हुई, ऐसा तब के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल कहा करते थे.

अब बात रही भारतरत्न पुरस्कार की. अगर किसी भी व्यक्ति को भारतरत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार देना है तो उनके जीवन कार्य के सभी पहलुओं का विचार होना जरुरी है. हालांकि, देश में जितने लोगों को आज तक भारतरत्न पुरस्कार दिया गया है, वे सभी इस पुरस्कार के लिए कितने लायक है, इस पर विवाद कभी भी हो सकता है. साथ ही अगर इसको दिया गया, तो उसको क्यों नहीं दिया गया, यह विवाद भी चलता रहता है.

हां सावरकर को अगर भारतरत्न पुरस्कार देना है, तो उनके स्वतंत्रता आंदोलन तथा सामाजिक कार्यों के लिए देना होगा. लेकिन फिर उनके जीवन के बाकी कार्यों का क्या होगा, जोकि किसी भी तरह से समर्थनीय माना नहीं जा सकता. ब्रिटिशों को भेजी दया याचिकाएं, ब्रिटिशों को दी गई सैन्य मदद, स्वतंत्रता आंदोलन का रुख देश के बटवारे की तरफ मोड़ना, एक धर्मनिरपेक्ष देश को हिंदूराष्ट्र में तब्दील करने के लिए प्रयास करना, यह सभी बातें उनके भारतरत्न में पुरस्कार प्राप्त करने में रोड़ा बन सकती है. इनका भी विचार होना जरुरी है.


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