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Adv. Prakash Ambedkar: The extreme degradation of politics?

एड. प्रकाश आंबेडकर: राजनैतिक अधःपतन की पराकाष्ठा ?


आंबेडकर... एक ऐसा शब्द जिसके उच्चारण से ही शरीर में एक प्रेरणा की लहर दौड़ने लगती है. डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने असीम त्याग और संघर्ष से जहां देश के शोषित और वंचित तबकों को समाज के मुख्य धारा में लाकर उन्हें न्याय दिलाने का काम किया वहीं दूसरी ओर देश को एक धर्मनिरपेक्ष संविधान दिया, जिस पर चलकर देश ने पिछले सात दशकों के दौरान प्रगति करते हुए आधुनिक युग में प्रवेश किया है.




डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर के महान कार्य को आज देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जानने और मानने लगा है. बाबासाहब का योगदान देश की प्रजातांत्रिक राजनीति में इतना बड़ा है, कि उसे शब्दों में वर्णन करना लगभग असंभव है. लेकिन आज उन्हीं का नाम लेकर राजनीति करने वाले अपने राजनैतिक अधःपतन की पराकाष्ठा कर चुके है, ऐसा दिखाई दे रहा है. इसमें सबसे उपर अगर कोई नाम आता है तो वे उन्हीं के पौत्र एड. प्रकाश आंबेडकर का.

चूंकि, देश में इस समय लोकतांत्रिक राजनीति स्थापित है, इसलिए किसी भी व्यक्ति को राजनीति में सम्मिलित होना, लोकप्रतिनिधी बनकर राज्य विधानसभा या देश की लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य बनना हर एक नागरिक का मौलिक अधिकार है. इसी मौलिक अधिकार के तहत एड. प्रकाश आंबेडकर देश की राजनीति में पिछले करीब तीन दशकों से भी अधिक समय से सक्रिय है.

बाबासाहब आंबेडकर के पौत्र होने के नाते नैसर्गिक रूप से एड. प्रकाश आंबेडकर की ओर से देश के शोषित, पीडित और वंचित घटकों के लिए राजनीति कर उन्हें न्याय दिलाने के लिए काम करना सभी के लिए अपेक्षाकृत है. अपने पिछले 35 वर्षों की राजनीति में उन्होंने कई बार सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष भी किया है.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश में बढ़ती पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था में एक ओर तो हर जाति-धर्म के आम आदमी के लिए मुश्किले खड़ी की है. वहीं दूसरी ओर समाज में पहले से ही जो वंचित और पीड़ित घटक है, उनके लिए समस्याएं और भी कठीन है. लेकिन इस परिस्थिति के खिलाफ खड़े होने की बजाय एड. प्रकाश आंबेडकर भी राजनीतिक समझौतों में उलझ कर रह गए और उनकी पार्टी तथा आंदोलन को पूंजीवादी कीटों का संक्रमण हो गया है.

यह सब विवेचन करने की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में एड. प्रकाश आंबेडकर की पार्टी और उनका आंदोलन काफी बदनाम हो रहा है. उन पर कई प्रकार के आरोप भी लग रहे है. एड. आंबेडकर देश की पूंजावदी पार्टियों के साथ गुप्त तौर पर गठबंधन करने  का आरोप भी उनपर लगता रहता है. हालांकि, इन आरोपों से एड. आंबेडकर को किसी भी प्रकार का कोई फर्क नहीं पड़ता.

इस समय महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनावों का फीवर अपनी चरम पर है. जहां सत्ताधारी भाजपा-शिवसेना फिर एक बार सत्ता में वापसी के लिए आतूर है, वहीं दूसरी ओर राज्य की विपक्षी पार्टी काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस ने भी सत्ताधारियों के खिलाफ ताल ठोंककर मैदान में जमे हुए है.

पिछले लोकसभा चुनावों से पहले एड. प्रकाश आंबेडकर वंचित-बहुजन आघाड़ी नाम से अपना गठबंधन करना शुरू किया. चूंकि, प्रकाश आंबेडकर डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर के पौत्र है, इसलिए वे पहले से ही दलित समाज में खासे लोकप्रिय है. आज भी दलित समाज का एक बड़ा तबका उनमें कहीं न कहीं डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर की छवि देखता है.

एड. प्रकाश आंबेडकर ने वंचित-बहुजन आघाड़ी के माध्यम से समाज के बड़े शोषित-वंचित तबके का विशाल गठजोड़ बनाने का काम किया. हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने और एक राजनीतिक पासा फेंका. उन्होंने ऑल इंडिया मजलीस ए इत्तेहादूल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन कर लिया.

इस गठबंधन के चलते राज्य की राजनीति में एक भूचाल आ गया था. जहां राजनीतिक पार्टियों के लिए यह एक तगड़ा झटका था, वहीं इस गटबंधन के चलेत राजनीतिक आलोचकों की भी भंवें तन गई थी. एआईएमआईएम की छवि मुसलमानों के लिए लड़ने वाली पार्टी की है तो सही, लेकिन इन जैसी पार्टियों के कारण राजनीतिक में कट्टरवाद या संकीर्णतावाद को बढ़ावा मिलने का सभी अंदेशा व्यक्त करते है.

देश का संविधान जहां पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष है और जो संविधान राजनीतिक को धर्म से अलग करने का सबक सिखाता हो, उस देश की राजनीतिक में धर्म का खुले तौर पर इस्तेमाल करने वाली इस पार्टी के साथ एड. आंबेडकर की पार्टी का गठबंधन कई लोगों को नागंवार गुजरा.

फिर भी महाराष्ट्र की ज्यादातर जनता ने इसे सकारात्मकता से स्वीकार कर लिया. लेकिन असली समस्याएं तो अब शुरू हुई थी. क्योंकि, इस गठबंधन के चलते लोकसभा चुनावों में खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियां काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस का सुपड़ा साफ हो गया. काँग्रेस पूरे राज्य में केवल एक सीट ही जीत पाई थी, वह भी आयात किए हुए उम्मीदवार के दम पर. इसी के चलते आंबेडकर के विरोधियों ने उन पर धर्मनिरपेक्ष वोटों को कांटकर भाजपा-शिवसेना गठबंधन को मदद करने वाला करार दिया गया था.

इसके कुछ ही महिनों के बाद अब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां तेज हो गई है. हालांकि, कुछ दिन पहले आंबेडकर और एमआईएम का गठबंधन टूट चुका है. दोनों को स्वतंत्र रूप से चुनाव में मैदान में डटे हुए है. लेकिन अगर वंचित बहुजन आघाड़ी के उम्मीदवारों की लीस्ट पर नजर डालें, तो यह सवाल उठना लाजमी है कि, क्या वाकई में एड. आंबेडकर वंचितों के न्याय के लिए लड़ाई लड़ रहे है, या फिर पूंजीवाद का चोला पहन चुकी भारतीय राजनीति में उनकी पार्टी का भी पूंजीकरण हो गया है.

आज वंचित बहुजन आघाड़ी के कई उम्मीदवार दूसरी पार्टियों से आए है. इनमें से कई तो करोड़पति है, कई उम्मीदवार ऐसे है, जो पीढ़ियों से कभी वंचित तबके से नहीं आते थे. कई उम्मीदवार जन्म से तो वंचित तबके से है, लेकिन आर्थिक दृष्टि से काफी सधन है. जिस तरह से देश की बाकी पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों में पैसे लेकर टिकट बांटने के आरोप लगते है, वैसे ही आरोप एड. आंबेडकर पर भी होते रहते है.

आज वंचित बहुजन आघाड़ी के कई उम्मीदवार दूसरी पार्टियों से आए है. इन उम्मीदवारों ने टिकट के लिए मोटी रकम दिलाने की चर्चा भी महाराष्ट्र के जनमानस में हैं. महाराष्ट्र के सारे निर्वाचन क्षेत्रों में वंचित बहुजन आघाड़ी ने ऐसे उम्मीदवारों को टिकट बांटे है, जो दूसरी विभिन्न पार्टियों में वर्षों से कार्यरत रहे है. इनमें से कई तो हिंदुत्ववादी पार्टियों में रहकर वर्षों तक विधायक भी थे. साथ ही जो विचारधारा से दक्षीणपंथी तथा संकीर्ण विचारों के रहे, ऐसे उम्मीदवारों को भी एड. आंबेडकर की पार्टी द्वारा टिकट बांटे गए. 

एड. आंबेडकर ने टिकट बांटते वक्त किसी भी प्रकार की कोई विचारधारात्मक प्रतिबद्धता न बरतने की बातें सामने आई है. जिनका आंबेडकरी आंदोलन के साथ कोई सरोकार ही नहीं था, साथ ही जो सामाजिक या आर्थिक दृष्टि वंचित नहीं, ऐसे भी लोगों को उन्होंने टिकट बांटे है. अब इसे क्या कहा जाए?

जो लोग किसी भी दृष्टि से वंचित नहीं, ऐसे लोगों को टिकट बांटकर एड. प्रकाश आंबेडकर कौनसा वंचितों का भला करने की सोच रहे है. इससे यह साफ जाहीर होता है कि, वंचित की ओर से टिकट बंटवारे में जरुर कोई दाल में काला होगा.

सामाजिक न्याय की स्थापना करने वाले शोषितों, वंचितों का उद्धार करने वाले डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर के विचारों पर चलने का दावा करने वालों की यह राजनीतिक अधःपतन की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है?

आखिर एड. आंबेडकर की ऐसी क्या मजबुरियां जो वे बाकी राजनीतिक पार्टियों की तरह ही बर्ताव कर रहे है?

बाकी राजनीतिक पूंजीवादी पार्टियों की राजनीतिक से हटकर एड. आंबेडकर द्वारा राजनीति करने की अपेक्षा है, लेकिन वे भी अब दूसरी ओर समझौतापरस्त राजनीति करने लगे है, जोकि देश में राजनीतिक परिवर्तन लाने की चाह रखने वालों के लिए एक करारा झटका है.

डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम लेकर राजनीति करने वाली बाकी पार्टियां जैसे रिपब्लिकन पार्टी के सभी गुट भी आज किसी न किसी प्रस्थापित पार्टी के पल्लू के निचे छीपकर अपने निजी स्वार्थ संभाल रहे है. इनमें सबसे प्रमुख नाम आता है रामदास आठवले का.



आठवले पहले काँग्रेस-राष्ट्रवादी काँग्रेस के पल्लू से चिपके रहे. उनसे मोहभंग होने (?) के बाद उन्होंने सीधे भाजपा खेमे में जाकर अपने आप को समर्पित कर दिया.

बाबासाहब आंबेडकर ने कभी कहा था कि, आप भी सत्तापक्ष वाली जमात बनों.

बाबासाहब के इस वाक्य को ज्यों का त्यों लेते हुए आठवले ने लाचारी के साथ पूंजीवादी पार्टियों के साथ नैतिकताहीन समझौता किया. इसी के दम पर वे पिछले कई वर्षों से सत्ता की रोटियां सेक रहे है. समाज के प्रति उनकी वफादारी तो कब की हवा हो गई है, ऐसा आरोप उनके पुराने सहयोगी ही करते है.

वंचित और शोषितों के लिए शुरू हुआ महान आंबेडकरी आंदोलन आज राजनीतिक अधःपतन की अपनी पराकाष्ठा पार कर चुका है. इसमें ना तो बाकी रिपब्लिकन पार्टियां कोई अपवाद है, ना ही एड. प्रकाश आंबेडकर या रामदास आठवले  की राजनीति कोई अपवाद है. यह देश के सिर्फ वंचित घटकों के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के लिए  एक खतरे की घंटी है, इसमें किसीकी दो राय नहीं हो सकती.



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