Political abduction of Mahatma Gandhi: an essay
क्या भाजपा और कांग्रेस वाकई में गांधी के वारीस हैं?
शांति के विश्वनायक मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें हम
महात्मा गांधी के तौर पर जानते है का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था. इसी दृष्टि
से 2 अक्टूबर 2019 को उनकी 150वीं जयंती थीं. उनकी यह जयंती शांति और सद्भाव का
संदेश देने वाली होना आवश्यक था. लेकिन उनकी यह जयंती राजनीतिक घमासान का केंद्र
बन गई.
2 अक्टूबर को दिल्ली के राजघाट पर बापू को श्रद्धासुमन
अर्पित करने के लिए राजनीतिक लोगों का तांता लगा रहा. यहां आकर विभिन्न पार्टियों
के राजनेताओं की ओर से महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देकर उनके कार्यों और विचारों
को याद किया गया. जिसमें भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेता भी शामिल थे.
बापू को लेकर दोनों में ही खिंचतान उनकी जयंती पर चलती रही.
दोनों ही पार्टियां अपने आप को गांधी विचारों का वारीस बताने का जमकर प्रयास करती
रही और एक-दूसरे को कोसती रही. लेकिन क्या वाकई में उनके दावों में कुछ सच्चाई है,
या फिर दोनों को ही अपनी-अपनी राजनीति की फिक्र है. उनके इन प्रयासों से तो फिलहाल
यही प्रतीत है.
हमने देखा है कि, 2014 में जबसे केंद्र में नरेंद्र मोदी की
सरकार स्थापित हुई है, तभी से वे हर जगह पर महात्मा गांधी के नाम की माला जपते नजर
आ रहे है. विदेशों में भी जाकर उन्होंने कई जगह पर बापू की मूर्तियों का अनावरण
किया है. कई जगहों पर लोगों को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने बापू के कार्यों
का गुणगान भी किया.
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को 2014 से पहले इतना ज्यादा
बापू का गुणगान कभी भी सुनते नहीं देखा है. लेकिन 2014 के बाद से ऐसा क्या
परिवर्तन हुआ, आज तक यह एक पहेली ही बना हुआ है. शायद नरेंद्र मोदी और बापू दोनों
ही गुजरात से होने के कारण यह होता है.
हालांकि, नरेंद्र मोदी और महात्मा गांधी दोनों ही गुजरात से
होने के अलावा इन दोनों में किसी भी तरह की समानता है ही नहीं. दोनों के कार्य, दोनों
की विचारधाराएं, दोनों के अनुयायी, दोनों का अंदाज किसी में भी दूर-दूर तक कोई भी
समानता नहीं है.
फिर क्यों नरेंद्र मोदी और भाजपा अब बापू को अपनी ओर खिंचने
का प्रयास कर रही है, यह सवाल आज सबके जहन में उठ रहा है. भाजपा यह प्रयास देखकर आज
तक जिनके पास बापू का कापीराईट था, वे कांग्रेसी इससे काफी तिलमिला उठे है. क्योंकि
उनका हुकम का इक्का आज उनके हाथ से छूटता नजर आ रहा है.
भाजपा के नेता भी बापू की जयंती पर मीडिया कैमरों के सामने
आकर लम्बी-लम्बी हांक रहे है कि, बापू के सपनों का भारत निर्माण करने का प्रयास
केवल और केवल नरेंद्र मोदी ही कर रहे है, ऐसा दावा वे कर रहे थे. वहीं दूसरी ओर
कांग्रेस के नेता यह दावा कर रह है, कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार बापू के
विचारों और कार्यों की धज्जियां उड़ा रही है. आखिर इन दोनों में से कौन सच्चा और
कौन झूठा, इस पर सारासार विचार करना जरुरी है.
हमारी नजर में यह बहस ही पूरी तरह से बेमानी है. क्योंकि
बापू के विचारों पर आज ना तो कांग्रेस पार्टी या उसका कोई नेता चल रहा है, ना ही
भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार. यह दोनों ही पार्टियां केवल बापू की प्रतिमा को
भुनाकर अपना-अपना राजनीतिक स्वार्थ खोजने का प्रयास कर रहे है.
यह सच है कि, कांग्रेस पार्टी को महात्मा गांधी की राजनीतिक
विरासत हासिल है. लेकिन उस विरासत पर ज़ंग लगे हुए सालों बीत चुके है. उनके
विचारों पर आखरी बार कांग्रेसी कब चले थे, यह भी शायद उन्हें अब याद नहीं होगा. सत्ता
को लेकर जबसे कांग्रेस में होड़ मचने लगी और उसके लिए कुछ भी कर गुजरने का कांग्रेसी
नेता प्रयास करने लगे, तभी उन्होंने बापू के विचारों को दफन करने की प्रक्रिया
शुरू की थी.
हर चुनाव में कांग्रेस ने महात्मा गांधी की विरासत को भुनाने
का जमकर प्रयास किया. गांधी की इसी विरासत ने देश में कई दशकों तक कांग्रेस को
सत्ता का शहद चखाया. यह स्वाद कांग्रेस को भी काफी भाया, जिससे कांग्रेस ने
करीब-करीब महात्मा गांधी पर अपना कापीराईट बना लिया था.
बापू के जीवन को हम बारीकी से देखें तो वे काफी सादगी जमीन
से जुड़ाव रखने वाले व्यक्तित्व थे. लेकिन चुनावों में बापू के नाम पर वोट की भीख
मांगने वाले कांग्रेसी नेता जब सत्ता में पहुंचते थे, तब वे पूरी तरह से बापू के
विचारों के विपरीत काम करते थे. कांग्रेस ने ही देश में वीआईपी कल्चर स्थापित किया.
इससे कांग्रेसी नेताओं, मंत्रियों, सांसद और विधायकों का रसूख काफी बढ़ गया, लेकिन
वे लोगों से दूर होते चले गए.
कांग्रेस ने ही देश में 1991 से आर्थिक उदारीकरण की नीतियां
लाई, जोकि बापू के ग्रामस्वराज्य के बिल्कुल विपरित साबित हुई. उन्होंने देहातों
की ओर जाने का संदेश दिया था. लेकिन आर्थिक उदारीकरण और वैश्विकरण के चलते कृषि
प्रधान देश का कृषि क्षेत्र बदहाल होता गया और लोगों का देहातों की ओर से शहरों की
ओर पलायन होता रहा. यह महात्मा गांधी के विचारों एक तरह से हत्या ही थी.
1996-97 के बाद से देश में पहली बार भाजपा केंद्र की सत्ता
में स्थापित हुई. हालांकि, अपनी स्थापना के समय भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का
नारा दिया था. लेकिन सत्ता तक पहुंचते ही यह नारा फुर्र हो गया था. जो सत्ता का
शहद अब तक कांग्रेसी चख रहे थे, वह अब भाजपा के हिस्से में आ गया था.
भारत की राजनीतिक पार्टियों के चरित्र की गंगोत्री मूलतः पूँजीपति-भूस्वामी
गठजोड़ से प्रवाहित होती है. भाजपा भी इसका कोई अपवाद नहीं थी. इसलिए उन्होंने
कांग्रेस द्वारा स्थापित वैश्विकरण और उदारीकरण की आर्थिक नीतियों को ही तेजी से
आगे बढ़ाने का काम किया. कांग्रेस और भाजपा की सरकारों द्वारा जो भी फैसले लिए जा
रहे थे, वे मूलतः गांधीवाद की विचारधारा के पूरी तरह से विपरित थे.
लेकिन भारत के राजनीतिक पार्टियों की एक खासियत है. खासियत
यह है कि, वह झूठ काफी सरलता और कौशलता के साथ बोलते है. भलेही वे नीतिगत फैसले
बापू की विचारधारा के कितने भी विपरित ले रहे हों, लेकिन वे उनके फैसले बापू के ही
सपना साकार करने वाले, यह चिल्लाकर बोलते रहे.
बापू को झूठ से काफी नफरत थी. वे हमेशा सच ही बोलते थे.
उनकी किताब सत्य के प्रयोग में उन्होंने इस संदर्भ में बहुत अच्छी जानकारी दी है.
लेकिन उनके सच बोलने के आग्रह से विपरित देश के राजनेता सफाई से झूठ बोलते है. फिर
भी वे बापू के असली वारीस होने का भी दावा ठोंकते है.
बापू की 150वीं जयंती के अवसर पर भाजपा और कांग्रेस दोनों
ने एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाए. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी ने इस मौके पर
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज कसे और कांग्रेस ही किस तरह से बापू के
विचारों पर चलने वाली पार्टी यह बताने का प्रयास किया.
वहीं दूसरी ओर भाजपा के प्रवक्ताओं ने भी नरेंद्र मोदी
सरकार के नीतियों का बखान करते हुए वे ही बापू के विचारों के असली वारिस होने का
दावा किया. लेकिन एक आम आदमी इन दोनों ही पार्टियों के दावों को किस तरह देखें यह
एक अहम सवाल है.
जिस पार्टी के कई नेता, सांसद तथा उसकी मातृसंस्था के नेता
बापू के हत्यारे नथुराम गोडसे का महिमामंडन करते हों, वह पार्टी यह दावा करें की
हम ही बापू के असली वारीस है, तो यह काफी हास्यास्पद हो जाता है. नथुराम गोडसे ने
तो बापू के शरीर को केवल एक ही बार मारा था. लेकिन देश की यह दो प्रमुख राजनीतिक
पार्टियां हर रोज बापू के विचारों और कार्यों की हत्याएं कर रही है.
बीते 25-30 वर्षों में जो भी राजनीतिक पार्टियां सत्ता में
आई हैं और उन्होंने सरकारों में रहते हुए जो भी नीतिगत फैसले लिए है, उन्हें देखकर
यही कहना पड़ता है कि, यह पार्टियां बापू की असली वारीस कभी भी नहीं हो सकती है,
क्योंकि वैश्विकरण के पश्चात के दौर में देश में भ्रष्टाचार, हिंसाचार, राजनीतिक
ध्रुवीकरण, कार्पोरेट और राजनेताओं के गठजोड़ से होने वाला शोषण, बेरोजगारी,
महंगाई काफी ज्यादा बढ़ गई है.
राजनीतिक पार्टियां कार्पोरेट्स के फंड के बलबूते पर चुनाव
जितती है. चुनावों में बड़ी संख्या में मतदाताओं को शराब, पैसे, साड़ियां तथा
विभिन्न चीजों का मुफ्त में वितरण किया जाता है. लोगों के वोटों की खरीद-फरोख्त की
जाती है और बाद में सत्ता में आने के बाद कार्पोरेटपरस्त नीतियां अपना कर जनता पर
विभिन्न तरह बोझ की गठरियां लादी जाती है. इन कार्पोरेटपरस्त नीतियों के चलते ही
भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी बढ़ती जाती है.
लेकिन जनता का इन मुद्दों की ओर से ध्यान भटकाने के लिए
भाजपा और कांग्रेस आपस में आरोप-प्रत्यारोप कर नुराकुश्ती खेलती है. जिससे लोग
केवल राजनीतिक घमासान का मजा लें और बाकी मुद्दों को भूल जाए, यह उनका प्रयास रहता
है. लेकिन यह पूरी तरह से बापू के विचारों के विपरित किया जाने वाले कार्य है.
अगर बापू के विचारों पर चलना है, तो सबसे पहले देश से
कार्पोरेट कल्चर को खत्म करना होगा. विधायकों, सांसदों, मंत्रियों समेत सभी वीआईपीज
को लोगों और जमीन से जुड़ना होगा. सबसे पहले झूठ बोलना छोड़ना होगा. वे सत्य इसलिए
नहीं बोल सकते क्योंकि फिर उनकी सारी खामियां उजागर हो जाएंगी.
बापू की ग्रामस्वराज्य की संकल्पना को साकार करना है, तो
सबसे पहले कृषि संस्कृति को मजबूती देनी होगी. इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों
को खेती में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना होगा. इससे खेती का लागत मूल्य कम होगा और
किसानों का जीवनस्तर सुधरेगा. ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होने पर रोजगार के अवसर
लोगों को ग्रामीण इलाकों में ही प्राप्त होंगे.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत कर गरीबों को सस्ते दामों
पर पर्याप्त मात्रा में अनाज और जरुरत की चीजें उपलब्ध करानी होंगी. साथ ही
बुनियादी ढाचों के विकास के लिए सरकार को सार्वजनिक निवेश में वृद्धि कर उसे मजबूत
करना होगा. इससे ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे.
प्रतिवर्ष हजारो करोड़ का मुनाफा कमाने वाले पूँजीपतियों से
भारी मात्रा में टैक्स वसूली करनी होगी और वह पैसा जनकल्याण की योजनाएं, जैसे
शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के लिए खर्च करने होंगे. इससे देश को शिक्षित
और सुदृढ पिढ़ी मिलेगी, जोकि देश निर्माण के काम में बेहतरीन काम कर सकेगी.
लेकिन यह सब होगा नहीं, क्योंकि देश के कार्पोरेट्स यह होने
नहीं देंगे. उन्हें उनके कारखानों में सस्ती मजदूरी पर मजदूर चाहिए है. इसलिए वे
सरकारों पर दबाव बनाकर पिछले 25-30 वर्षों
में खेती का सार्वजनिक
आवंटन कम करा रहे है. इससे खेती बदहाल हो रही है. किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही
है. किसान अपनी खेती से दूर हो ते जा रहे है, वे ठेका मजदूर बनकर कारखानों में
उपलब्ध हो रहे है.
मजदूरों का शोषण कर कार्पोरेट्स अपने मुनाफों की ओर फेरारी
गाड़ी की तेज गति से दौड़ रहे है. मजदूरों के लिए जहां मजदूरी कम हो रही है, वहीं
शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च बढ़ता जा रहा है. मजदूरों के अधिकार सिमटते जा रहे
है. किसान और मजदूर दोनों का शोषण जानबुझकर किया जा रहा है,
शुक्र है... गांधी के विचारों को मारनेवालों में मैं शामिल नहीं !
फिर भी कांग्रेस और भाजपा यह दावा कर रही है कि, वे ही बापू
के असली वारीस है. इससे ज्यादा मजाक जनता ही नहीं बापू के साथ भी कोई हो नही सकता.
आज बापू जीवित होते तो शायद यह सब देखकर खुद ही नथुराम से बंदूक छीनकर शायद
आत्महत्या कर लेते.
इस स्थिति को बदलना है तो सबसे पहले हमें झूठ बोलने वाले
राजनेताओं को सवाल पूछना जरुरी है. उनसे जवाबतलब जरुरी है. इसके बजाय आज व्यक्ति
का महिमामंडन हो रहा है. अगर आप सत्ताधारियों के साथ नहीं है तौ पाकिस्तान के साथ
है, यह सुनने की आदत डालनी होगी और इसका खुले तौर पर विरोध करना होगा.
देशद्रोह के आरोप के डर से चूप बैठ जाएंगे, तो हम भी
राजनेताओं की तरह बापू के विचारों की हत्या करने वालों की भीड़ में शामिल हो
जाएंगे. कम से कम हम इतना तो कर ही सकते है कि, इस भीड़ में शामिल ना होकर हम अपने
जमीर को यह संदेश तो दे ही सकते है कि, शुक्र है गांधी के विचारों को मारने वालों
में मेरा समावेश नहीं है.
Both supporters and opponents of Gandhi's thought have acknowledged its importance today.In fact, they are convinced that without Gandhi's ideas, we will not be able to move forward.That is why it is imperative for everyone to get the name of Gandhi, whether they are in mind or not
ReplyDeleteOf course, those who took the name of Mahatma Gandhi did not understand Gandhi yet, this is different