Is It Possible To Get Rid Of Visual Impairments?
दृष्टिदोष से मुक्ति पाना संभव हैं?
हम एक रूढ़िवादी समाज में रहते हैं जहाँ किसी व्यक्ति की क्षमताओं को उसके बाह्य स्वरूप से देखा जाता हैं. वैसे तो चश्मा वाले लोग शानदार दिखाई देते हैं, मगर चश्मा लगाने से ज्यादातर लोगों की उम्र पांच साल से अधिक लगने लगती हैं. वैसे तो ख़ुशी ख़ुशी कौन चश्मा पहनना चाहता हैं?
इसके अलावा, चश्मा पहनने के कई बुरे पहलू भी हैं, आपके चश्मे का नंबर लगातार बढ़ता रहता है, जिसकी वजह आपके लिए सिरदर्द एक नियमित चीज बन सकती हैं. आपको चश्मा हर जगह ले जाना होता हैं, क्यूंकि आप वास्तव में उसके बिना स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते.
कुछ वर्षों की तुलना में अगर देखा जाए तो आज की स्थिति में हम देखते हैं कि, चश्मा लगाने वालों की मात्रा चार से पांच गुना बढ़ चुकी है. आज हर एक क्लास में 10 से 15 या उससे भी अधिक बच्चों को चष्मे दिखाई देते है.
हालांकि, हमारी आंखों का असली विकास बचपन से ही होना शुरू होता है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बदलती जीवनशैली तथा मोबाईल, टीवी, वीडियो गेम का काफी ज्यादा इस्तेमाल, कम्प्युटर पर घंटो बैठना, काफी बारीक अक्षरों के टाइप वाली किताबें पढ़ना इसके चलते दृष्टिदोषों की मात्रा काफी बढ़ गई है.
बचपन में ही दृष्टिदोष बढ़ने से बच्चों को चष्मा लग जाता है. बचपन में इस तरह की समस्या उत्पन्न होने के चलते ऐसे बच्चों को आगे चलकर मिलिटरी-पुलिस की भर्ती, पाइलट, नेवी, रेलवे, यूपीएससी की परीक्षाएं, मॉडेलिंग या टीवी-सिनेमा में भूमिका के लिए नकारा जा सकता है.
यह सारी समस्याएं केवल एक चष्मे के चलते आ सकती है. इसके अलावा चष्मे वाले युवाओं के विवाह कराने में भी कई बार दिक्कतें आती दिखाई देती है. इनसे बचने के लिए समय रहते ही इलाज कराना जरुरी होता है. वरना आंखों की समस्या की ओर अनदेखी बाद में गंभीर रूप ले सकती है.
अहमदनगर के मशहूर नेत्रशल्यक्रिया विशेषज्ञ डॉ. प्रकाश और सुधा कांकरिया ने 1985 में रशिया जाकर डॉ. फेदरोव से रेडियल कैरेटोटोमी (radial keratotomy) तकनीक का अभ्यास किया. बाद में अहमदनगर आकर साईसूर्य नेत्रसेवा संस्था की स्थापना की.
बेहतरीन तकनीक के चलते यह डॉक्टर दम्पति काफी मशहूर हो गए. इस अस्पताल में 1988 से मोतीबिंदू की अत्याधुनिक शल्यक्रिया का फैकोइनल्सीफिकेशन तकनीक विकस की गई. 1990 में एटोमोटेड लैमिलर कैरेटोप्लास्टी तथा 1995 लैसिक शल्यक्रिया साईसूर्य अस्पताल में शुरू की गई. इसके बाद वेवफ्रंट गाइडेड लेसर ट्रिटमेंट, आईसीएल, रिफ्रैक्टिव लेन्स एक्स्चेंज, केरैटोकोनस ट्रिटमेंट, एपिलैसिक शल्यक्रिया चष्मे की समस्या खत्म करने की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित हुई.
डॉ. प्रकाश कांकरिया और सुधा कांकरिया ने दृष्टिदोषों को कम करने के संदर्भ में काफी बेहतरीन काम किया. उनकी यही साझी विरासत को और आगे ले जाने का काम उनके बेटे डॉ. वर्धमान कांकरिया और डॉ. श्रुतिका कांकरिया कर रहे है.
इस दम्पति ने पुणे में एशियन आय अस्पताल की नींव रखी. उन्होंने दृष्टिदोषों को दूर करने के लिए और भी उन्नततर तकनीक का इस्तेमाल करते हुए भारत में पहली बार स्माइल, फ्लेम्टो लैसिक (femto Lasik), झेप्टो लेसर मोतीबिंद के लिए मल्टी फोकल तकनीक की शुरुआत की.
दृष्टि को सही करने में मनुष्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को सदियों का इतिहास हैं. यूरोप में लगभग 13 वीं शताब्दी में चश्मा बनाया जा चूका था. कांटेक्ट लेंस 1800 के दशक के अंत में स्विट्जरलैंड में hand-blown ग्लास से बनाए जाने लगे थे. पर इसमें की त्रुटियों को दूर करने के लिए विकास निरंतर जारी रहा.
1970 के दशक में, एक रूसी नेत्र रोग विशेषज्ञ ने रेडियल केराटोटॉमी विकसित की, जो अल्प-दृष्टि वालों में दृष्टी को पुनर्स्थापित करने के लिए की जाने वाली एक शल्य क्रिया की प्रक्रिया हैं. रेडियल रेडियल केराटोटॉमी में, कॉर्निया के केंद्र से हीरे की चाकू से कॉर्निया की वक्रता को बदलने के लिए चीरों को बनाया जाता हैं. इस शलयक्रिया का उपयोग आज भी कुछ प्रकार के दृष्टिवैषम्य के इलाज के लिए किया रहा हैं.
हाल ही में साईसूर्य अस्पताल में कॉन्ट्यूरा तकनीक से आंखों का इलाज शुरू किया गया है. इस तकनीक के चलते केवल चष्मा ही छूटता नहीं बल्कि पहले से अधिक दृष्टि प्राप्त होती है.
इस तकनीक में दृष्टिबिंदू केंद्रित इलाज किया जा सकता है. आज तक की यह सबसे उन्नततर तकनीक मानी जाती है. इस तकनीक से इलाज करानेके बाद मरीज को पहले से केवल 100 फीसदी नहीं बल्कि 110 या 120 फीसदी तक ज्यादा अच्छी तरह से दिखाई देता है. यह एक आश्चर्यकारक बात है.
आज साईसूर्य अस्पताल में करीब दो दर्जन शल्यक्रियाएं उपलब्ध है, जिससे आंखो का बेहतरीन इलाज किया जा सकता है.
डॉ. प्रकाश ने आज तक 2 लाख से अधिक लेसर शल्यक्रिया सफल की है. उन्होंने आज तक 50 से अभी अधिक बार केवल आठ घंटों के भीतर 150 से अधिक लैसिक शल्यक्रिया सफल की है. यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है. इसके चलते उन्हें कई सारी बड़ी संस्थाओं से विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है.
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कॉन्टुरा विजन लेसर ट्रीटमेंट से चष्मे से छुटकारा संभव
हम एक रूढ़िवादी समाज में रहते हैं जहाँ किसी व्यक्ति की क्षमताओं को उसके बाह्य स्वरूप से देखा जाता हैं. वैसे तो चश्मा वाले लोग शानदार दिखाई देते हैं, मगर चश्मा लगाने से ज्यादातर लोगों की उम्र पांच साल से अधिक लगने लगती हैं. वैसे तो ख़ुशी ख़ुशी कौन चश्मा पहनना चाहता हैं?
इसके अलावा, चश्मा पहनने के कई बुरे पहलू भी हैं, आपके चश्मे का नंबर लगातार बढ़ता रहता है, जिसकी वजह आपके लिए सिरदर्द एक नियमित चीज बन सकती हैं. आपको चश्मा हर जगह ले जाना होता हैं, क्यूंकि आप वास्तव में उसके बिना स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते.
कुछ वर्षों की तुलना में अगर देखा जाए तो आज की स्थिति में हम देखते हैं कि, चश्मा लगाने वालों की मात्रा चार से पांच गुना बढ़ चुकी है. आज हर एक क्लास में 10 से 15 या उससे भी अधिक बच्चों को चष्मे दिखाई देते है.
दृष्टिदोष के कारण और समस्याएं
हालांकि, हमारी आंखों का असली विकास बचपन से ही होना शुरू होता है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बदलती जीवनशैली तथा मोबाईल, टीवी, वीडियो गेम का काफी ज्यादा इस्तेमाल, कम्प्युटर पर घंटो बैठना, काफी बारीक अक्षरों के टाइप वाली किताबें पढ़ना इसके चलते दृष्टिदोषों की मात्रा काफी बढ़ गई है.
बचपन में ही दृष्टिदोष बढ़ने से बच्चों को चष्मा लग जाता है. बचपन में इस तरह की समस्या उत्पन्न होने के चलते ऐसे बच्चों को आगे चलकर मिलिटरी-पुलिस की भर्ती, पाइलट, नेवी, रेलवे, यूपीएससी की परीक्षाएं, मॉडेलिंग या टीवी-सिनेमा में भूमिका के लिए नकारा जा सकता है.
यह सारी समस्याएं केवल एक चष्मे के चलते आ सकती है. इसके अलावा चष्मे वाले युवाओं के विवाह कराने में भी कई बार दिक्कतें आती दिखाई देती है. इनसे बचने के लिए समय रहते ही इलाज कराना जरुरी होता है. वरना आंखों की समस्या की ओर अनदेखी बाद में गंभीर रूप ले सकती है.
कैसे हुआ तकनीक का विकास?
अहमदनगर के मशहूर नेत्रशल्यक्रिया विशेषज्ञ डॉ. प्रकाश और सुधा कांकरिया ने 1985 में रशिया जाकर डॉ. फेदरोव से रेडियल कैरेटोटोमी (radial keratotomy) तकनीक का अभ्यास किया. बाद में अहमदनगर आकर साईसूर्य नेत्रसेवा संस्था की स्थापना की.
बेहतरीन तकनीक के चलते यह डॉक्टर दम्पति काफी मशहूर हो गए. इस अस्पताल में 1988 से मोतीबिंदू की अत्याधुनिक शल्यक्रिया का फैकोइनल्सीफिकेशन तकनीक विकस की गई. 1990 में एटोमोटेड लैमिलर कैरेटोप्लास्टी तथा 1995 लैसिक शल्यक्रिया साईसूर्य अस्पताल में शुरू की गई. इसके बाद वेवफ्रंट गाइडेड लेसर ट्रिटमेंट, आईसीएल, रिफ्रैक्टिव लेन्स एक्स्चेंज, केरैटोकोनस ट्रिटमेंट, एपिलैसिक शल्यक्रिया चष्मे की समस्या खत्म करने की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित हुई.
अगली पिढ़ी ने लाई उन्नत तकनीक
डॉ. प्रकाश कांकरिया और सुधा कांकरिया ने दृष्टिदोषों को कम करने के संदर्भ में काफी बेहतरीन काम किया. उनकी यही साझी विरासत को और आगे ले जाने का काम उनके बेटे डॉ. वर्धमान कांकरिया और डॉ. श्रुतिका कांकरिया कर रहे है.
इस दम्पति ने पुणे में एशियन आय अस्पताल की नींव रखी. उन्होंने दृष्टिदोषों को दूर करने के लिए और भी उन्नततर तकनीक का इस्तेमाल करते हुए भारत में पहली बार स्माइल, फ्लेम्टो लैसिक (femto Lasik), झेप्टो लेसर मोतीबिंद के लिए मल्टी फोकल तकनीक की शुरुआत की.
क्या है कॉन्ट्यूरा तकनीक
दृष्टि को सही करने में मनुष्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को सदियों का इतिहास हैं. यूरोप में लगभग 13 वीं शताब्दी में चश्मा बनाया जा चूका था. कांटेक्ट लेंस 1800 के दशक के अंत में स्विट्जरलैंड में hand-blown ग्लास से बनाए जाने लगे थे. पर इसमें की त्रुटियों को दूर करने के लिए विकास निरंतर जारी रहा.
1970 के दशक में, एक रूसी नेत्र रोग विशेषज्ञ ने रेडियल केराटोटॉमी विकसित की, जो अल्प-दृष्टि वालों में दृष्टी को पुनर्स्थापित करने के लिए की जाने वाली एक शल्य क्रिया की प्रक्रिया हैं. रेडियल रेडियल केराटोटॉमी में, कॉर्निया के केंद्र से हीरे की चाकू से कॉर्निया की वक्रता को बदलने के लिए चीरों को बनाया जाता हैं. इस शलयक्रिया का उपयोग आज भी कुछ प्रकार के दृष्टिवैषम्य के इलाज के लिए किया रहा हैं.
हाल ही में साईसूर्य अस्पताल में कॉन्ट्यूरा तकनीक से आंखों का इलाज शुरू किया गया है. इस तकनीक के चलते केवल चष्मा ही छूटता नहीं बल्कि पहले से अधिक दृष्टि प्राप्त होती है.
इस तकनीक में दृष्टिबिंदू केंद्रित इलाज किया जा सकता है. आज तक की यह सबसे उन्नततर तकनीक मानी जाती है. इस तकनीक से इलाज करानेके बाद मरीज को पहले से केवल 100 फीसदी नहीं बल्कि 110 या 120 फीसदी तक ज्यादा अच्छी तरह से दिखाई देता है. यह एक आश्चर्यकारक बात है.
आज साईसूर्य अस्पताल में करीब दो दर्जन शल्यक्रियाएं उपलब्ध है, जिससे आंखो का बेहतरीन इलाज किया जा सकता है.
डॉ. कांकरिया की सफलता
साईसूर्य नेत्र अस्पताल में 35 वर्षों के अनुभव के बाद -0.5 से लेकर 30 तथा +18 नंबर का चष्मा भी छूट सकता है. डॉ. प्रकाश कांकरिया ने एक मरीज से दुनिया का सबसे अधिक नंबर -42 नंबर वाला चष्मा भी छुड़ाया है.डॉ. प्रकाश ने आज तक 2 लाख से अधिक लेसर शल्यक्रिया सफल की है. उन्होंने आज तक 50 से अभी अधिक बार केवल आठ घंटों के भीतर 150 से अधिक लैसिक शल्यक्रिया सफल की है. यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है. इसके चलते उन्हें कई सारी बड़ी संस्थाओं से विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है.
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें
डॉ. प्रकाश - डॉ. सुधा कांकरिया,
साईसूर्य अस्पताल, अहमदनगर
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